मुंबई, 29 अप्रैल, (न्यूज़ हेल्पलाइन)। सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका पर सुनवाई के लिए सहमति जताई है, जिसमें कहा गया था कि अगर कोई व्यक्ति मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत नहीं आना चाहता, तो क्या उसे देश के धर्मनिरपेक्ष कानून के तहत रखा जा सकता है। चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पारदीवाला और मनोज मिश्रा की बेंच ने इस याचिका पर चर्चा करने के बाद केंद्र और केरल सरकार को नोटिस जारी किया है। बेंच ने अटॉर्नी जनरल ऑफ इंडिया आर वेंकटरमणी से कहा है कि एक लॉ ऑफिसर को अपॉइंट करें। बेंच इस मामले की सुनवाई जुलाई के दूसरे हफ्ते में करेगी। ये याचिका केरल की रहने वाली सफिया पीएम ने दाखिल की है। उसका कहना है कि वह अपने धर्म में यकीन नहीं करती है और इसलिए वह उत्तराधिकार के मामले में मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरिया लॉ) की बजाय भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 को मानना चाहती है। महिला ने कहा कि उसके पिता भी मुस्लिम धर्म को नहीं मानते हैं, लेकिन आधिकारिक तौर पर मुस्लिम धर्म से अलग नहीं हुए हैं। महिला ने कहा कि शरिया कानून के तहत अगर कोई शख्स मुस्लिम धर्म पर यकीन करना छोड़ देता है, तो उसे समाज से बाहर कर दिया जाता है। ऐसे में अगर उसने ऐसा किया तो उसका अपने पिता की संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं रह जाएगा।
याचिका में कहा गया है कि शरिया के मुताबिक, कोई मुस्लिम व्यक्ति अपनी संपत्ति में से एक-तिहाई से ज्यादा हिस्सा वसीयत में नहीं दे सकता है। याचिकाकर्ता ने कहा कि उसके पिता उसे ⅓ से ज्यादा संपत्ति नहीं दे सकते हैं। बाकी ⅔ संपत्ति उसके भाई को मिलेगी, जिसे डाउन सिंड्रोम नाम की बीमारी है। महिला ने ये भी कहा कि उसकी एक बेटी है और महिला की मौत के केस में सारी संपत्ति उसकी बेटी को नहीं मिलेगी क्योंकि उसके पिता के भाई यानी महिला के चाचा भी इस संपत्ति में अपना हक मांगेंगे। महिला ने याचिका में कहा कि उत्तराधिकार का हक देने वाले कानून के न होने से, धर्म छोड़ देने वाले नागरिक बेहद खतरनाक स्थिति में आ जाएंगे। ऐसे हालात में न तो देश का धर्मनिरपेक्ष कानून और न ही धार्मिक कानून उसकी रक्षा कर पाएंगे। शरिया कानून के मुताबिक, जिसने इस्लाम छोड़ दिया वह अपनी पैतृक संपत्ति पर भी अपना अधिकार खो देगा। इसलिए याचिकाकर्ता की अपील है कि उसे भारतीय उत्तराधिकार कानून, 1925 के प्रावधानों के तहत गवर्न किया जाए। याचिकाकर्ता ने यह भी कहा कि वह मानती है कि शरिया कानून की प्रथाएं महिलाओं के प्रति बेहद भेदभाव करती हैं। इससे संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों का हनन होता है।